Wednesday, April 23, 2014

Poem - On Voting

We went to our polling booth at 8'oclock in the morning this April. There were young boys and girls, mostly working in IT companies here, standing in line, along with housewives, senior citizens and all the rich and poor of the area. Just looking so many educated people vote, made me feel very good about democracy. A free country is the most undervalued and badly maintained asset that we have. Here is a small poem for those 10 Crore first time voters and to those educated people whose belief in voting have been rekindled.

 

बिखरी धूप सुरजों की बादलों को काट कर,

उभर रही है पुस्तकें आज यूँ ललाट पर,

 

 

अग्यात वास में छिपे थे, वीर कुछ समाज के,

है धनुष सज़ा रहे वो, अब चयन के बान से,

भुजाएं अब धधक रही है, शत्रुओं पे वार कर,

निकल रहे है पार्थ-पुत्र चक्रव्यूह पार कर,

 

बन गये धनी कितने, धनी का झूठा चाट कर,

भाषा, रंग, धर्म के, नाम सब को बाँट कर,

वो स्याह टीका धर्म का, उंगली पे लिए हुए,

ठाट से दिखा रहा है नवप्रीत सा किए हुए,

निकलेगी अब के टोलियाँ, दास को सम्राट कर,

सूरज नया बनाएँगे, किरणें सुनहरी छांट कर,

 

बिखरी धूप सुरजों की बादलों को काट कर,

उभर रही है पुस्तकें आज यूँ ललाट पर

 

 

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